फिल्म बनारस का’बा–ए–हिंदोस्तान मेरी सबसे पंसीदीदार फिल्म है। बनारस आज विश्वप्रसिद्ध शहर है, ये एक ऐसा शहर है जो यहां एक बार आता है बस यही का होकर रह जाता है। जब गालिब बीमारी की हालत में बनारस के घाट पर उतरे तो बनारस की रौनक, रंगत, घाटों की चहल-पहल और स्वच्छ आबो-हवा को महसूस कर उनकी आधी बीमारी तो वही ठीक हो गई थी और वे बनारस के आशिक ही हो गए। बनारस शिव की नगरी है यहां के कंकड़ में भी शंकर बसते हैं और यहां का हर इंसान शिवमयी होकर घूमता दिखाई देता है। इस फिल्म में गालिब की नजरों से बनारस को दिखाया गया है। गालिब के बनारस के प्रति प्रेम यहां की संस्कृति के प्रति आदर-भाव उनकी फारसी मस्नवी चरागे–ए–दैर में बखूबी देखने को मिलता है। उनकी नजरों में बनारस हिंदोस्तान का काबा हैं।
क्योंकि मिर्जा नौशा उर्फ गालिब की तरह बनारस की खूबसूरत संस्कृति, यहां की करिश्माई रंगत को देखने और महसूस करने दूर-दूर से लोग यहां आते हैं। गालिब को भी दिल्ली से कलकत्ते तक का सबसे लंबा सफर करना पड़ा, उसी सफर के शुरूआती दौर में वे बांदा, चिल्लातारा, मोड़ होते हुए बीमारी की हालत में बनारस पहुंचे। बनारस की खूबसुरती को देखकर वे इस शहर पर फीदा हो गए थे। उसी से प्रभावित हो कर उन्होंने फारसी मसनवी चरागे–ए–दैर को वहीं 1827 या 1828 में बनारस में रह कर लिखा। गालिब ने सराय नैरंग में जो आज सराय नौरंगाबाद के नाम से मश्हूर है पांच दिन गुज़ारे। इसके बाद इसी मुहल्ले में एक मकान कराए पर मिल गया वही रहने लगे। यह मकान बेहद तंगो-तारीक था।
सूरज की रोशनी में झिलमिलाती हुई गंगा की बेहद सुंदर तारीफ करते है गालिब।
गालिब को इस कदर बनारस से मोहब्बत हो गई थी कि उन्होंने वही अपनी फारसी मस्नवी चरागे–ए–दैर में 108 अशार लिखे । चरागे–ए–दैर का मतलब मंदिर का दीप होता है उन्होंने अपनी मस्नवी में बनारस के घाटों, लाला के फूल, भंवरों की गुनगुनाहट, वहां की तंग गलियों, मंदिर की आरती और बनारस की संस्कृति को खूब सरहाया। इस नगर को हिंदुओं की ईबादत्तगाह और हिंदोस्तान का काबा करार दिया। गालिब का मानना हैं कि इस बदलती दुनिया में बनारस की रौनक और नूर हर तरह के बदलाव में आजाद हैं।
मुहम्मद अली ख़ां के नाम मिर्ज़ा ग़लिब के फ़ारसी ख़त का उर्दू अनुवाद;
ग़ालिब ने मुहम्मद अली ख़ां के नाम एक ख़त में बनारस की तारीफ़ करते हुए लिखा हैः-‘‘बनारस की हवा के ऐजाज़ से मेरे गु़बारे वजूद को अलमे फ़त्ह की तरह बलंद कर दिया और वज्द करती हुई नसीम के झोंकों ने मेरे ज़ोफ़ और कमज़ोरी को बिल्किुल दूर कर दिया, मर्हबा! अगर बनारस को उसकी दिलकशी और दिल नशीनी की वज्ह से सुवैदाए आलम कहूं तो बजा है। मर्हबा। इस शहर के चारों तरफ़ सब्ज़ओ गुल की ऐसी कसरत है कि अगर इसे ज़मीन पर बहिश्त समझूं तो रवा है। इसकी हवा को यह ख़िदमत सौंपी गयी है कि वह मुर्दा जिस्मों में रूह फूंक दे। इस की ख़ाक का हर ज़र्रा रहे रौ के पांव से पैकाने ख़ार बाहर खैंच ले। अगर गंगा इसके पांव पर अपना सर न रगड़ता तो हमारे दिलों में उसकी इतनी क़द्र न होती। अगर सूरज इस के दरो दीवार से न गुज़रता तो इतना ताबनाक और मुनव्वर न होता। बहता हुआ दरियाए गंगा उस समुन्दर की तरह है, जिस में तूफ़ान आया हुआ हो। यह दरिया, आसमान पर रहने वालों का घर है। (इस से ग़ालिब की ग़ालेबन मुराद यह है कि इस दरिया की लहरें आसमान को छूती हैं।) सब्ज़ रंग परीचेहरा हसीनों की जल्वागाह के मुक़ाबले में क़ुदसियाने माहताबी के घर कतां के मालूम होते हैं। अगर मैं एक सिरे से दूसरे सिरे तक शहर के इमारतों की कसरत से ज़िक्र करूं तो वह सरासर मस्तों से आबाद हैं और अगर इस शह्र के एतराफ़े सब्ज़ा–ओ–गुल से बयान करूं तो दूर–दूर तक बहारिस्तान नज़र आये।
गालिब ने लिखा कि अगर उनके पैरों में मजहब की जंजीरें न होती, तो मैं अपनी तज़्वी तोड़ कर जनेउ धारण कर लेता। माथे पर तिलक लगा लेता और गंगा के किनारे उस वक्त तक बैठा रहूंगा जब तक मेरा इरफानी जिस्म एक बूंद बनकर गंगा में पूरी तरह समा ना जाए । इस तरह की बात वही शख्स बोल सकता है जिसे अपने देश और उसकी सभ्यता से प्यार हो। गालिब की चरागे–ए–दैर फारसी मस्नवी हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बन गई है। आज के दौर में इस तरह की मस्नवीओं को पढ़ने की, समझने की और उस पर विचार विर्मश करने की बहुत जरूरत है। ताकि हम हमारी साहित्यिक धारोहर को पहचान सके और उसे बचा सके।
इस फिल्म को बनाने में बुहत सारी मुश्किलें आई । क्योकि मिर्जा नौशा की भाषा फारसी और उर्दू थी। तो उन्होंने अपनी जितनी भी कृतियां लिखी वे सब इसी भाषा में लिखी हुई है। जब मैंने इस फिल्म को बनाना शुरू किया तो भाषा सबसे बड़ा मुद्दा थी मेरे लिए क्योंकि मुझे फारसी न पढ़नी आती है और न लिखनी। जब आप ऐसे विषय पर फिल्म बना रहे होते हैं जिसकी भाषा हमें समझ न आती हो तो मुश्किलें और ज्यादा बढ़ जाती हैं। ऐसे में मेरे दोस्तों और कई जानीमानी हस्तियों ने हमारी मदद की। गालिब के साहित्य के बारे में मुझे बारीकी से बताया। जिनमें से सबसे पहले बॉलीवुड एक्टर स्वर्गीय श्री टॉम अल्टर साहब थे, जिन्होंने गालिब पर ताउम्र काम किया। उन्होंने अपने कीमती समय से वक्त निकाल कर हमारे साथ अपने अनुभव सांझा किए और गालिब के बारे में अब तक जो भी वो समझ पाए, हमें खुल कर बताया।
प्रोफेसर सैयद हसन अब्बास, डायरेक्टर, रज़ा रामपुर लाईब्रेरी, प्रोफेसर चंद्रा शेखर फॉर्मल एचओडी पश्र्यिन दिल्ली विश्वविद्यालय, डॉक्टर सैयद रज़ा हैदर, डायरेक्टर गालिब इंस्टीट्यूट दिल्ली, बनारस से उर्दू लेखक वसीम हैदर हाशमी, पश्र्यिन डिपार्टमेंट की गेस्ट फैक्लटी एस एन अब्बास (कैफी) जैसी नामी गिरामी हस्तियों की मैं शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने गालिब के साहित्य पर बहुत बारीकी से तथ्य दिए। और हमारी हर मुश्किलों को आसान कर दिया।
बनारस के बीएयू के उर्दू लेखक वसीम हैदर हाश्मी की मैं बेहद शुक्रगुजार हूं । उन्होंने मेरा हर मोड़ पर पूरा साथ दिया। और उन्होंने ने ही फिल्म की स्क्रिप्ट भी लिखी। फिल्म की शूटिंग के दौरान बनारस वालों ने भी हमारी हर तरह से मदद की । अगर कहें कि बनारस में आज भी अपनी तहजीब और अदब कायम है तो बिल्कुल ठीक होगा। बनारस जहां शिवमयी है, वही उसकी अपनी संस्कृति और एक अलग तहजीब है जो आज तक वैसी की वैसी ही बनी हुई है।
इसके अलावा जो सबसे बड़ी मुश्किल हमारे सामने आई वह थी फिल्म की फन्डिंग की। हमने कई संस्थानों के दरवाजे खटखटाए पर किसी ने हमें आर्थिक रूप से कोई मदद नहीं दी। मुझे इन सभी बड़े-बड़े संस्थानों के ऐसे व्यवहार से काफी दुख हुआ। संस्थानों के अलावा मुझे और मेरी पूरी टीम को जब बड़ा झटका लगा, जब बॉलीवुड की जानी मानी हस्ती हमारे साथ अपने अनुभव सांझा करने से मना कर दिया। आज सब कुछ कमर्शियल हो गया है। हर कोई मुनाफा पहले देखता है। किसी भी अच्छे कार्य को प्रोत्साहित नही करते। अतः हमने फिर मिलजुल कर ही इस फिल्म की रिसर्च और फन्डिंग की और फिल्म को पूरा किया।
गालिब को चुनना मेरे लिए इसलिए जरूरी था कि एक तो मैं उनकी शायरी को बेहद पसंद करती हूं और काफी समय से मैंने उनके साहित्य को भी पढ़ा है। उसी दोरान मैंने एक डांस शो भी देखा, जहां से मुझे ये एहसास हुआ कि गालिब की फारसी मसनवी चरागे–ए–दैर पर फिल्म बनानी चाहिए। जिसके जरिए लोग इस मसनवी का अर्थ समझ पाएंगे। आज की पीढ़ी को मिर्जा गालिब के बारे में कुछ खासा नहीं पता और न उनके साहित्य के बारे में उन्हें कुछ समझ है। मिर्जा नौशा की फारसी मस्नवी चरागे–ए–दैर एक ऐसी मिसाल है जो मजहबी अकीदों से बहुत परे थी। जिसमें गालिब की दूरदर्शित साफ झलकती है, और हमें ये समझ आता है कि उनकी नज़रो में लिए र्सिफ एक धर्म था इंसानियत धर्म। चरागे–ए–दैर एक मिसाल है हिंदू और मुसलमान की एकता की। गालिब की दीवाने-ए-गालिब, मुजमुयां खतुत्त, उर्दू मोयला और उनके पूरे उर्दू अदब की शक्ल में आज भी हमारे दिलों में जिंदा हैं। गालिब एक ऐसी शख़्सियत जिन्हें अल्लाह ने नूर के साथ लेखकी का हुनर जन्म से ही दिया था। वही वह इतने मस्तमौला इंसान थे कि उन्हें घर पर ही दोस्तों की महफिले करना बेहद भाता था। उनकी महफिलों में शायरी के दौर चला करते थे और वे बैठे-बैठे ही नज़्म गढ़ दिया करते थे। गालिब में वो सूफियत थी जिसकी वजह से वे अच्छे शायर होने के साथ सबके हमराज दोस्त बन जाया करते थे। गालिब को जितना जानना चाहा उनके बारे में और जानने उन्हें समझने की मेरी जिज्ञासा दिन ब दिन बड़ती रही हैं। आज के इस बीज़ी युग में गालिब की कमी अखरती है।
फिल्म बनारस । का’बा–ए–हिंदोस्तान की निर्देषिका
बीनू राजपूत
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